वो हर पत्थर पर अपना नाम तराशती गई,
मैं हर लकीर से अपनी पहचान मिटाता गया
उसकी आहट से पहले, बाग़ था वीरान सा,
फिर एक बोतल टूटी, और अत्तर महकता गया
मैंने बिस्तर की सिलवटों को संजोग रखा है वैसे ही
जब भी गूंजी घुंगरू की सदा, मैं और पिता गया
मुझे तेरा शहर कभी रास न आएगा
मैं जिस भी गली से गुजरा तेरी यादों का था साया
~ विशाल
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