चाहता हूं तुझ पे एक किताब लिखूं
तेरे मेरे सारे ख़्वाब लिखूं
पर किस लफ्जों में बयां करूं
तुझे सुबह लिखूं या शब लिखूं
तेरी आंखों का शरार लिखूं
दिल की हर बात, जज्बात लिखूं
चांद को छुपाके तुझे
चांदनी रात लिखूं
कभी तुझे मैं घर लिखूं
कभी तुझे मैं प्यार लिखूं
कुछ सच कुछ झूठ लिखूं
कभी मज़लूम, कभी गुनहगार लिखूं
चाहता हूं तुझ पे एक किताब लिखूं
तेरे मेरे सारे ख़्वाब लिखूं
~ विशाल
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जब आंख खुली तो अक्सर
मैं पूछता हूं खुद से
कल रात छलावे जैसा
कौन था मेरी बाहों में
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हाँ ये सच है शाम मुस्कुराती भी है
चांदनी धीरे-धीरे जगमगाती भी हैं
तुम मेरे साथ किनारों पे चलना
लहरें गुनगुनाती भी हैं
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मी कितीही टाळले
तरी येतोच तुझा उल्लेख
तुझ्याशिवाय माझी प्रत्येकच
कविता निःशेष