Sunday, September 29, 2024

 कैसे कहूं वो कैसा था

वो एक राज़ के जैसा था

टूट के जो मैं बिखर न जाऊं,

मुझे समेटे वैसा था।


हर दर्द में मरहम बनकर,

वो चुपके से आ बैठा था,

दो लफ्जों में अपना सा लगा,

वो कुछ शेर के जैसा था।


दूर था लेकिन पास लगा,

जैसे मेरा साया था,

सांसों में उसकी खुशबू थी,

और नाम लबों पे छाया था।


~ विशाल 


Saturday, September 28, 2024

 


चाहता हूं तुझ पे एक किताब लिखूं

तेरे मेरे सारे ख़्वाब लिखूं 

पर किस लफ्जों में बयां करूं

तुझे सुबह लिखूं या शब लिखूं 


तेरी आंखों का शरार लिखूं 

दिल की हर बात, जज्बात लिखूं

चांद को छुपाके तुझे

चांदनी रात लिखूं


कभी तुझे मैं घर लिखूं

कभी तुझे मैं प्यार लिखूं

कुछ सच कुछ झूठ लिखूं

कभी मज़लूम, कभी गुनहगार लिखूं


चाहता हूं तुझ पे एक किताब लिखूं

तेरे मेरे सारे ख़्वाब लिखूं 


~ विशाल 


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जब आंख खुली तो अक्सर

मैं पूछता हूं खुद से

कल रात छलावे जैसा

कौन था मेरी बाहों में


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हाँ ये सच है शाम मुस्कुराती भी है

चांदनी धीरे-धीरे जगमगाती भी हैं

तुम मेरे साथ किनारों पे चलना

लहरें गुनगुनाती भी हैं


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मी कितीही टाळले 

तरी येतोच तुझा उल्लेख

तुझ्याशिवाय माझी प्रत्येकच

कविता निःशेष